✍️ वेदप्रकाश लांबा
९४६६०-१७३१२
अनेक ऐसे मित्र हैं जो पंजाबी भाषा जानते हैं लेकिन, गुरमुखी लिपि से परिचित नहीं हैं। उन्हीं के लिए यह पंजाबी कविता देवनागरी लिपि में प्रस्तुत है
कश्मीर की स्थिति पर टिप्पणी यह कविता आज भी उतनी ही सामयिक है जितनी २०१५ में थी :
अग्ग लग्गी ऐ लोको चिनार नूँ
भाँबड़ दिलां दे अंदर पए बलदे ने
ज़ुलम होयै ढेर इस धरत उत्ते
डल दी छाती नूँ शिकारी पए दलदे ने
जेहड़े हमसायाँ दी छाँवें सी ठंड वसदी
दुपहरे उन्हाँ दियाँ अक्खाँ ही भौंअ गइयाँ
कंजकां कुआरियांँ मिट्टी च रुल गइयाँ
रोंदियाँ सिसकदियाँ कुरलौंदियाँ सौं गइयाँ
वंगां जिन्हां दी वीणी छणकदियाँ सन
अखीर मत्थे सिंदूर ओह भर गइयाँ
उच्चे कोठयाँ चुबारयाँ तों मार छालां
पत्त सांभ के आपणी मर गइयाँ
जदों इन्सान इन्सान नूँ न इन्सान समझे
एह केहड़े कलमे ते केहड़ियाँ इबारताँ ने
मालक दर-दर भटकदे फिरदे ने
ठर-ठर ठरदियाँ खाली इमारतां ने
वक्त खलो के पुछदै जम्मूए दे राजे नूँ
शेरां वाली दा मंदर काहजों बणाया ई
भिज्जे बलूंगड़े होए ने शेर माँ दे
की खट्टया ई ते की कमाया ई
माड़े वेले दी हुंदी औलाद माड़ी
रिशी कश्यप तों एहियो कसूर होयै
तपदी भट्ठी चों उड के इक दाणा
संगी-साथियाँ तों बहुती दूर होयै
चादर हिन्द दी कदे न होई मैली
पर रीतां होइयाँ पुराणियाँ ने
सरबंसदानी गोबिन्द दे जायां ने
हुण कंधां नहीं चिनवाणियाँ ने
तेरी कथा नूँ सुणदयाँ-सुणदयाँ ही
जगदमाता गई ए सौं बाबा
कालियाँ सदियाँ च थोड़ा समां बचयै
उठ जाग पिछांह नूँ भौंअ बाबा
जेहड़े हत्थीं फड़ाई अज वाग लोकां
मौतों भैड़ी नमोशी पए उडीकदे ने
तिल्लक के डिग्गेआं कई वार जित्थों
उन्हां पूरनयाँ नूँ मुड़ पए उलीकदे ने
कोई दस्से इन्हां नूँ आण दस्से
मच्छी चट के पत्थर परतदी ए
रस्से चब्बण दी आदत जिस पै जावे
बूथा भना के ही ठंड उस वरतदी ए !
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