केलाशा: पाकिस्तान की धरती पर शेष वैदिक संस्कृति का अन्तिम दीपक

केलाशा: पाकिस्तान की धरती पर शेष वैदिक संस्कृति का अन्तिम दीपक
✍️Lieutenant. Preeti Mohan

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि पाकिस्तान की पर्वतीय घाटियों में आज भी वेदों की अनुगूँज सुनाई देती है? वहां आज भी ढोल की थाप पर गीत गूंजते हैं — न ऋतिक रोशन के डांस पर, न बॉलीवुड के शोर पर, बल्कि सूर्य, अग्नि और प्रकृति देवताओं की स्तुति पर। यह कोई कल्पना नहीं, यह सच्चाई है — केलाशा जनजाति की।

वेदों की छाया में एक समुदाय

पाकिस्तान के ख़ैबर-पख़्तूनख्वा प्रांत के चितराल ज़िले की तीन घाटियाँ — बम्बोरेट, रंबूर और बिरिर — वैदिक संस्कृति की अंतिम सांसें ले रही हैं। यहां निवास करता है केलाशा समुदाय, जो अब केवल 3,000 से 4,000 लोगों तक सिमट चुका है।

नृवंशीय रूप से ये दर्दिक हिंद-आर्य समूह से जुड़े माने जाते हैं। इनके देवताओं के नाम भले अलग हों — Balumain, Mahandeo, Dezau — पर इनका स्वरूप, पूजन-पद्धति और प्रकृति के प्रति श्रद्धा वैदिक सनातन परंपरा से गहराई से जुड़ी हुई है।

केलाशा: पाकिस्तान की धरती पर शेष वैदिक संस्कृति का अन्तिम दीपक

विलुप्त होती एक सभ्यता का नाम: केलाशा

केलाशा धर्म बहुदेववादी है। वे अग्नि, सूर्य, पर्वत, जल और पशुओं को पूजते हैं। उनका प्रमुख पर्व Chaumos किसी यज्ञोपवीत-संस्कार सा प्रतीत होता है। Joshi और Uchau जैसे त्योहार कृषि और ऋतुचक्र से जुड़े हैं — जैसे वेदों में ‘ऋत’ के साथ जीवन का मेल बताया गया है।

केलाशा स्त्रियां काले वस्त्रों में सज्जित, सिर पर रंग-बिरंगी मनकों की टोपी पहनती हैं — जो उन्हें अद्वितीय बनाती हैं। ढोलक, सामूहिक गायन और नृत्य उनका सामाजिक तानाबाना है। वे कहते हैं — “हम नाचते नहीं, हम देवताओं से बात करते हैं।”

केलाशा: पाकिस्तान की धरती पर शेष वैदिक संस्कृति का अन्तिम दीपक

इस्लामीकरण का दबाव और पहचान का संकट

केलाशा पर आज सबसे बड़ा खतरा धार्मिक असहिष्णुता और जबरन धर्मांतरण का है। कट्टरपंथी संगठनों द्वारा विशेषकर युवतियों को इस्लाम में लाने के प्रयास एक सुनियोजित योजना के अंतर्गत हो रहे हैं।

केलाशा धर्म को न पाकिस्तान के संविधान में मान्यता है, न NADRA जैसे पहचान-पत्रों में स्पष्टता। यह अस्तित्व को नकारने जैसा है।

एक बुजुर्ग शाह गुल केलाशा कहते हैं —“हमें मारिए मत, हमारी पूजा को मत छीनिए। हमारे देवता हमें छोड़ देंगे, तो हम भी मिट जाएंगे।”

भाषा, शिक्षा और संस्कृति की तिजोरी खुल रही है… पर लुट रही है

स्कूलों में न केलाशा भाषा है, न इनकी परंपरा। नई पीढ़ी उर्दू और पश्तो में खो रही है। UNESCO ने 2016 में केलाशा संस्कृति को Intangible Cultural Heritage in Danger घोषित किया, पर पाकिस्तान सरकार का रवैया उदासीन है।

केलाशा: पाकिस्तान की धरती पर शेष वैदिक संस्कृति का अन्तिम दीपक

पर्यटन या पराजय?

पश्चिमी पर्यटकों के लिए केलाशा एक ‘लोक-प्रदर्शन’ है। महिलाओं की तस्वीरें चोरी से लेना, रीति-रिवाजों को तमाशा समझना — यह आधुनिक उपनिवेशवाद जैसा है। केलाशा के पर्व अब 'फेस्टिवल सीज़न' बनते जा रहे हैं, जिसमें उनका अपना आत्मा छूट रही है।

संघर्ष और एक टिमटिमाती आशा

कुछ स्थानीय संगठन — Kalasha Dur और Chitral Heritage Society — इनकी संस्कृति, रीति, भाषा और पोशाक के संरक्षण में लगे हैं। लेकिन संसाधनों की भारी कमी है।

संयुक्त राष्ट्र की सहायता सीमित है और इस्लामी शासन में आत्मीय सहयोग की आशा नहीं की जा सकती।

वेद की अंतिम गूंज को सुनिए…

केलाशा केवल एक जनजाति नहीं, एक जीवित वेद है। यह वह समुदाय है जहां देवता आज भी फूलों, दूध और अग्नि से तृप्त होते हैं — जहाँ ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति’ की झलक मिलती है।

भारत, सनातन और विश्व समाज का यह धार्मिक और सांस्कृतिक कर्तव्य है कि वह इस अंतिम वैदिक दीपक को बुझने न दे। यह लेख किसी विशेष जाति के समर्थन का नहीं, बल्कि सांस्कृतिक चेतना का आह्वान है।