मीरी-पीरी दिवस: जब श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी के विचारों से प्रभावित हुए छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास

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लेखक: सुनील दत्त, पूर्व डायरेक्टर, पंजाबी साहित्य अकादमी

5 जुलाई, सिख इतिहास का वह दिव्य दिवस है जब श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने "मीरी" और "पीरी" — सांसारिक सत्ता और आध्यात्मिक शक्ति — के अद्भुत संतुलन की स्थापना की। यह दिन सिर्फ एक धार्मिक घोषणा नहीं, बल्कि सत्ता के अन्याय के विरुद्ध आत्मरक्षा का वैदिक उद्घोष था।

⚔ मीरी-पीरी: संत और सिपाही का समन्वय

साल 1606 में, गुरु अर्जन देव जी की शहादत के बाद जब श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने गुरुगद्दी संभाली, तो उनका मार्गदर्शन स्पष्ट था — धर्म की रक्षा केवल उपदेशों से नहीं, आवश्यक हो तो संगठन और शस्त्र से भी करनी होगी। उन्होंने अमृतसर के हरमंदिर साहिब के सामने दो तलवारें धारण कीं — एक "मीरी" की प्रतीक (राजनीतिक अधिकार), दूसरी "पीरी" की (आध्यात्मिक दायित्व)। यही दो तलवारें आज संत-सिपाही परंपरा की आधारशिला मानी जाती हैं।

श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी: छठे गुरु साहिबान 

शस्त्रधारी गुरु को देखकर कई लोग भ्रमित होते हैं, लेकिन श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी का व्यक्तित्व दो धाराओं का समागम था —
अंदर से पूर्ण विरक्त संत, बाहर से लोककल्याण के लिए सजग योद्धा। उनका जीवनदर्शन एक ही वाक्य में समाहित था:
“Internally a hermit, and externally a prince. Arms mean protection for the poor and destruction for the tyrant.”


एक ऐतिहासिक भेंट: गुरु हरगोबिंद और समर्थ रामदास

साल 1634, उत्तर भारत की यात्रा पर निकले समर्थ रामदास, श्रीनगर में गुरु हरगोबिंद साहिब जी से मिलते हैं। गुरु जी उस समय शिकार यात्रा से लौट रहे थे — पूर्ण शस्त्रों से सुसज्जित, घोड़े पर सवार, सिख सैनिकों की टुकड़ी साथ।

एक पारंपरिक सन्यासी के रूप में यह दृश्य रामदास जी के लिए अप्रत्याशित था।

रामदास जी ने पूछा:

“मैंने सुना था कि आप गुरु नानक की गद्दी पर हैं। लेकिन गुरु नानक तो त्यागी संत थे। आप तो शस्त्र धारण करते हैं, सेना रखते हैं और लोग आपको ‘सच्चा पातशाह’ कहते हैं। यह कैसा साधु है?”

गुरु साहिब जी ने उत्तर दिया:

“भीतर से विरक्त संत हूं, बाहर से राजसी प्रकट।
शस्त्र गरीब की रक्षा और ज़ालिम के विनाश का माध्यम हैं।
बाबा नानक ने संसार नहीं, माया (अहंकार और स्वार्थ) को त्यागा था।”

और फिर उन्होंने पंक्तियाँ उच्चारित कीं:

“ਬਾਤਨ ਫਕੀਰੀ, ਜ਼ਾਹਿਰ ਅਮੀਰੀ,
ਸ਼ਸਤ੍ਰ ਗਰੀਬ ਦੀ ਰਖਿਆ, ਜ਼ਾਲਮ ਦੀ ਭਖਿਆ,
ਬਾਬਾ ਨਾਨਕ ਸੰਸਾਰ ਨਹੀਂ ਤਿਆਗਿਆ, ਮਾਇਆ ਤਿਆਗੀ ਸੀ।”

इन शब्दों ने समर्थ रामदास जी को झकझोर दिया। समर्थ रामदास जी ने कहा:

“यह हमारे मन को भाता है – Yeh hamare man bhavti hai।”

(स्रोत: पंजाह साखियाँ, साखी 39; Ramdas Swamichi Bakhar, 18वीं सदी) 

स्रोत: The Sikhs in History — डॉ. संगत सिंह


समर्थ रामदास जी से शिवाजी तक

समर्थ रामदास जी वही संत थे, जिन्होंने आगे चलकर छत्रपति शिवाजी महाराज को आत्मिक प्रेरणा दी। जो विचार श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी से समर्थ रामदास जी तक पहुंचे, वही बाद में शिवाजी की तलवार और नीति में प्रकट हुए।