असम के श्रीमान्त शंकरदेव की नामघर परम्परा बनी हिन्दू मुस्लिम भाईचारे का प्रतीक

✍️लेखक: सुनील दत्त, पूर्व डायरेक्टर, पंजाबी साहित्य अकादमी, हरियाणा

15वीं शताब्दी का असम अंधविश्वास, जातिवाद और धार्मिक अलगाव से जूझ रहा था। ऐसे समय में एक साधक ने समाज को प्रेम और समानता की दिशा दिखाई — वही थे श्रीमान्त शंकरदेव। श्रीमान्त शंकरदेव जी भारतीय इतिहास के उन महान संत, कवि-सुधारक और धर्मद्रष्टाओं में से हैं, जिन्होंने अपने समय में धर्म को मानवता का पर्याय बना दिया। असम के इस महापुरुष ने केवल धार्मिक चेतना नहीं जगाई बल्कि सामाजिक असमानता, जाति-पाति, अंधविश्वास तथा कर्मकांड की जड़ें खोद दीं। उन्होंने जो सर्वधर्म समभाव, समानता और सहज भक्ति की परंपरा शुरू की, वह आज भी असम की आत्मा और हमारी प्रेरणा बनी हुई है।

जीवन-परिचय:

शंकरदेव जी का जन्म 1449 में असम के बर्दुवा (अलिपुखुरी समीप) में हुआ था। उन्होंने बाल्यकाल में ही माता-पिता को खो दिया और अपनी दादी खेरसुटी के संरक्षण में बड़ी हुईं। शिक्षा-दीक्षा के पश्चात उन्होंने ज्ञान और साधना का मार्ग अपनाया और असम में एक नए भक्ति-आंदोलन की नींव रखी। उनका प्रमुख धार्मिक आंदोलन था “एख शरण नाम धर्म” (Ekasarana Dharma) — जिसमें उन्होंने कहा कि “एक ईश्वर, एक शरण, कोई उपम नहीं”।

एक शरण नाम धर्म: समानता और भक्ति का नया मार्ग:

शंकरदेव जी द्वारा प्रवर्तित धार्मिक आंदोलन को “एक-शरण-नाम-धर्म” (Ekasarana Dharma) कहा गया। यह धर्म न किसी विशेष संप्रदाय, जाति या पूजा-पद्धति पर आधारित था, बल्कि एक ईश्वर, एक नाम और एक शरण की अवधारणा पर टिका था।

मुख्य सिद्धांत:

·      एक देव: ईश्वर एक है — श्रीकृष्ण या परमात्मा।

·       एक शरण: भक्त केवल उसी ईश्वर की शरण में जाए।

·       एक नाम: ईश्वर के नाम का सतत स्मरण ही सच्ची उपासना है।

·       भक्ति पर बल: कर्मकांड या जाति से नहीं, बल्कि सच्ची भक्ति और सेवा से मुक्ति संभव है।

इन चार सिद्धांतों ने भक्ति को केवल पूजा नहीं, बल्कि जीवन जीने की शैली बना दिया।

उनके इस आंदोलन ने असम के आम लोगों को पहली बार यह अहसास कराया कि धर्म का अर्थ मंदिर, जाति या पुरोहित नहीं — बल्कि प्रेम, करुणा और समानता है।

सामाजिक सुधार की दिशा में कार्य

जाति-पाति एवं अस्पृश्यता के विरुद्ध

शंकरदेव जी ने उस युग में जहाँ जातिगत भेद, ऊँच-नीच और अस्पृश्यता गहरी जड़ें जमा चुकी थीं, स्पष्ट रूप से कहा कि –

ईश्वर एक है, नाम अनेक हैं, और प्रेम ही सच्चाई है।”

उन्होंने अपने प्रवचन, नामघर तथा सत्रों के माध्यम से यह संदेश दिया कि किसी मनुष्य का मूल्य उसकी जाति या जन्म से नहीं बल्कि उसके कर्म, भक्ति और सेवा से होता है। सामाजिक रूप से उन्होंने अस्पृश्यता को समाप्त करने एवं सभी को समान स्थान देने का आंदोलन चलाया। उनके द्वारा स्थापित नामघर और सत्र ऐसे प्रार्थना केंद्र बने, जहाँ किसी जाति, धर्म या लिंग का भेद नहीं था। इन स्थलों पर हिंदू और मुसलमान, स्त्री और पुरुष, सभी समान रूप से भक्ति में सम्मिलित होते थे।

(नामघर और सत्र: असम की सामाजिक क्रांति: सत्र एक मठवासी केंद्र है जो असम में नव-वैष्णववाद का पालन करता है, जबकि नामघर इसी सत्र की एक प्रार्थनाशाला है, जो एक सामुदायिक प्रार्थना और सामाजिक केंद्र के रूप में काम करती है। सत्रों के भीतर नामघर होते हैं, और दोनों असमिया समाज और संस्कृति के लिए महत्वपूर्ण हैं।)

अंधविश्वास और कर्मकांड का विरोध

शंकरदेव जी ने उस समय प्रचलित मूर्तिपूजा, पशुबलि, तंत्र-मंत्र और जादू-टोने जैसी कुप्रथाओं का विरोध किया। उन्होंने सिखाया कि ईश्वर बाहरी कर्मकांड से नहीं, बल्कि  सत्य, प्रेम और सेवा से प्राप्त होता है। उन्होंने लोगों को आडंबरों से मुक्त होकर सरल भक्ति और सदाचार का मार्ग अपनाने का उपदेश दिया। इससे समाज में नैतिकता और सादगी की भावना बढ़ी।

कला, संगीत और स्त्री-सशक्तिकरण: एक आधुनिक दृष्टि:

वह आधुनिक-दृष्टि वाले धर्मद्रष्टा थे — उन्होंने असमिया भाषा में कीर्तन-घोशा, भागवत कीर्तन, अंकिया नाट एवं नाट्य-रचनाएँ कीं ताकि लोक-भाषा में आम लोगों को धर्म- और नैतिक शिक्षा मिल सके। उन्होंने स्त्रियों को भी धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने का अवसर दिया, जो उस युग में अत्यंत प्रगतिशील कदम था। उनके नाट्य-मंडलों और कीर्तन सभाओं में महिलाओं को समान सम्मान मिला।

प्रमुख नाट्य-रचनाएँ (अंकिया नाट):

चिन्ह यत्रा, पारिजात हरण, कलिय दमन, राम विजय, रुक्मिणी हरण, केलि गोपाल, पत्नी प्रसाद आदि। इन नाटकों में संगीत, नृत्य, अभिनय और संवाद के माध्यम से धार्मिक संदेश दिया गया।

संगीत और नृत्य:

शंकरदेव जी ने “बॉर्गीत” (भगवान की स्तुति में रचित भक्ति-गीत) की परंपरा शुरू की। उन्होंने नृत्य के रूप में “सत्रिया नृत्य” की रचना की, जिसे आज भारत का एक शास्त्रीय नृत्य-रूप माना जाता है।

सर्वधर्म समभाव और हिंदू–मुस्लिम एकता:

शंकरदेव जी ने हिंदू–मुस्लिम एकता की भावना को अपने जीवन और कार्यों से मूर्त रूप दिया। उनके नामघरों में मुसलमान अनुयायी भी सम्मिलित होते थे। उन्होंने सिखाया कि सच्चा धर्म किसी पूजा-पद्धति में नहीं, बल्कि  प्रेम, सेवा और सत्य जीवन में है। उनकी वाणी में गूंजता था — “हर जीव में एक ही परमात्मा की जोत विद्यमान है इस प्रकार उनके द्वारा स्थापित दृष्टि ने असम में धार्मिक सौहार्द और सामाजिक समरसता की नींव रखी। उनके प्रमुख अनुयायियों में समाज के विभिन्न वर्गों और धर्मों के लोग शामिल थे — जैसे चांडसाई (एक मुसलमान), गोविंदा (गारो), परमानंद (मीरी), जयनंद (भूटिया), नरहरि (अहोम), माधव (जैंतिया) और दामोदर (बनिया)। यह विविधता दर्शाती है कि शंकरदेव का भक्ति आंदोलन केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता और एकता का प्रतीक था।

मुस्लिम समुदाय पर प्रभाव

ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय अध्ययनों से पता चलता है कि असम के स्थानीय मुसलमानों (असमिया मुसलमान) का एक बड़ा हिस्सा शंकरदेव की शिक्षाओं से प्रभावित रहा है।

कई मुस्लिम समुदायों ने नामघर की सांस्कृतिक गतिविधियों — जैसे भजन, नृत्य, कीर्तन, नाटक (अंकिया नाट) — में भाग लिया।

असम में सदभावना और साझा संस्कृति (Syncretic culture) विकसित हुई जिसे स्थानीय लोग “एकोटा संस्कृती” या “असमिया पहचान” कहते हैं।

ऐतिहासिक उदाहरण

कुछ मुस्लिम कवि और लोकगायक (जैसे शेख फकीर, गोपाल उर्फ गफूर, दाऊद खाँ आदि) ने शंकरदेव और माधवदेव के कीर्तन और भक्ति-साहित्य से प्रेरणा ली।

कुछ गाँवों में आज भी मुसलमान लोग नामघर उत्सव या भाऊना (धार्मिक नाटक) में भाग लेते हैं — भले ही वे धार्मिक रूप से इसे पूजा न मानें, पर सांस्कृतिक दृष्टि से सम्मान करते हैं।

इसे असम की “सांझी विरासत” (shared heritage) कहा जाता है।

असम के मुसलमानों ने शंकरदेव की नामघर परंपरा को न केवल पसंद किया बल्कि सांस्कृतिक रूप से अपनाया भी।

यह इस बात का प्रमाण है कि असम में धर्म से ऊपर उठकर सांस्कृतिक एकता और भाईचारे की भावना बहुत प्रबल रही है।

1. “The Neo-Vaishnavite Movement and Satra Institution of Assam” – Maheswar Neog (महेश्वर नेग)

असम के महान इतिहासकार और साहित्यकार महेश्वर नेग ने विस्तार से बताया है कि शंकरदेव के भक्ति आंदोलन ने केवल हिंदुओं ही नहीं बल्कि स्थानीय मुसलमानों को भी प्रभावित किया।

वे लिखते हैं कि नामघर और सतरा संस्थान असमिया समाज के “communal harmony centers” बन गए थे।

2. “Srimanta Sankaradeva: His Life, Philosophy and Works” – Edited by B.K. Saikia

इस संकलन में कई लेख हैं जो शंकरदेव के मानवतावादी और सर्वधर्म समान दृष्टिकोण पर आधारित हैं।

इसमें बताया गया है कि कैसे “एक-शरण-धर्म” में जाति या धर्म का कोई भेद नहीं रखा गया था।

3. “Religion and Society in Assam” – Amalendu Guha

प्रसिद्ध इतिहासकार अमलेंदु गुहा ने लिखा है कि असम की लोक संस्कृति (folk culture) में इस्लामी और वैष्णव तत्वों का मेल-जोल हुआ, जिससे “असमिया राष्ट्रीय पहचान” बनी।

वे नामघर को एक “सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था” बताते हैं, जिसमें मुसलमानों की भागीदारी भी दर्ज है।

4. Dr. S.N. Sarma – “The Neo-Vaishnavite Movement and Its Socio-Cultural Impact”

शंकरदेव आंदोलन के समाजशास्त्रीय प्रभाव पर आधारित यह पुस्तक बताती है कि नामघर केवल धार्मिक स्थल नहीं बल्कि लोकसंस्कृति के केंद्र थे — जहाँ असमिया मुसलमान भी उत्सवों में शामिल होते थे।

5. Research Papers & Local Studies

“Syncretic Traditions in Assam” – Journal of North East India Studies

“Muslim Participation in Satriya Culture of Assam” – Published in Gauhati University Journal

इन शोधों में बताया गया है कि कैसे भाऊना (धार्मिक नाटक), कीर्तन और बिहू जैसे उत्सवों में दोनों समुदाय समान रूप से भाग लेते थे।

6. लोक परंपरा (Oral Traditions)

कई असमिया गाँवों में लोककथाएँ और गीत हैं जहाँ “मियाँ मुसलमान और नामघरिया हिंदू” एक साथ त्योहार मनाते हैं।

उदाहरण: बारपेटा, नौगाँव, गोहपुर, और गोलाघाट क्षेत्रों में आज भी ऐसे उदाहरण देखे जाते हैं।

प्रभाव और विरासत:

शंकरदेव जी के विचारों से प्रेरित होकर असम में “वैष्णव सत्र परंपरा” विकसित हुई, जिसने असम की सामाजिक एकता, शिक्षा और संस्कृति को गहराई से प्रभावित किया। आज असम के हर गाँवa में नामघर उनकी परंपरा का जीवंत उदाहरण है। भारत सरकार ने उनके सम्मान में ‘Srimanta Sankaradeva Kalakshetra’ (गुवाहाटी) की स्थापना की है, जहाँ उनके जीवन, कला और दर्शन का संरक्षण किया जाता है।

श्रीमान्त शंकरदेव जी केवल एक धार्मिक नेता नहीं थे बल्कि उन्होंने भक्ति-आधारित सामाजिक आंदोलन, समानता-आधारित धार्मिक शिक्षा, लोक-भाषा-आधारित साहित्य-सृजन, तथा सभी धर्मों और जातियों के प्रति समभाव जैसे मूल्यों को असम में स्थायी रूप से प्रतिष्ठित किया। उनका जीवन-संदेश आज भी हमें यह याद दिलाता है कि धर्म का सच्चा उद्देश्य मनुष्य को जोड़ना, शिक्षित करना और उसे मानवता के मार्ग पर अग्रसर करना है।

उनकी वाणी में निहित यह सत्य सदैव मार्गदर्शन देता रहेगा —

“ईश्वर एक है, नाम अनेक हैं, और प्रेम ही सच्चाई है